श्यामनंदन कुमार, पटना.
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से जुड़ा है अक्षय तृतीया पर्व का इतिहास। अयोध्या में जन्मे भगवान ऋषभदेव ने प्रयाग (इलाहाबाद) में जैनेश्वरी दीक्षा को धारण किया जो इस युग की प्रथम दीक्षा थी। भगवान के साथ चार हजार राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की थी ।
जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के प्रबंध मंत्री एवं प्रतिष्ठाचार्य विजय कुमार जैन ने बताया कि अक्षय तृतीया का प्राचीन इतिहास हस्तिनापुर तीर्थ से ही प्रारंभ हुआ है। वैशाख सुदी तीज को अक्षय तृतीय के नाम से जाना जाता है। अक्षय का अर्थ है जिस वस्तु का कभी क्षय न हो अर्थात् वस्तु समाप्त न हो और वह महीना वैशाख का था और तिथि तृतीया थी। इसलिए इसका नाम अक्षय तृतीया पड़ा। लोगों का मानना है कि इस दिन किया जाने वाला कार्य वृद्धि को प्राप्त होता है। भगवान ऋषभदेव के अवतरण को करोड़ों साल व्यतीत हो गये। लेकिन आज भी अक्षय तृतीया का पर्व मनाने के लिए देश एवं विदेश से जैन श्रद्धालु आहार दान की महिमा का वर्णन करते हस्तिनापुर की पवित्र धरती पर आते हैं ।
श्री जैन ने बताया कि ऐसी मान्यता है कि तीर्थंकर ऋषभदेव के हस्तिनापुर आगमन पर भारी जन समुदाय ने एकत्र होकर भगवान का दर्शन किया और उन्हें गन्ने के रस समर्पित किया जिसे भगवान ऋषभदेव ने आहार के रूप में ग्रहण किया.
“इच्क्षु रस का हुआ पारण, आखा तीज महान। जय जय ऋषभदेव भगवान, जय जय ऋषभदेव भगवान।।“

हस्तिनापुर नगर के शासक राजा सोमप्रभ और उनके भाई श्रेयांस कुमार महल के बाहर आकर प्रभु के चरणों में नम्रता पूर्वक नमस्कार करते हैं और नवधा भक्ति पूर्वक उनका पड़गाहन कर लेते हैं एवं अष्ट द्रव्य से पूजन कर नमस्कार करते हैं । बड़ी भक्ति के साथ राजा श्रेयांस इच्छुरस (गन्ने) का आहार देते हैं। भगवान ऋषभदेव करपात्र में ही आहार प्रारंभ कर देते हैं । इसके बाद वे आहार करके वन की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। उस दिन सारे नगर में गन्ने के सार का प्रसाद वितरण किया जाता है। लेकिन फिर भी गन्ने का रस समाप्त नहीं होता है। वह अक्षय हो जाता है। तब से लेकर आज तक हस्तिनापुर की धरती के समीपवर्ती क्षेत्रों में इच्क्षु (गन्ना) खेती खूब पाई जाती है । ऐसा मानते है कि जैन साधु जहॉं पर भी विराजमान होते हैं, उनको आज के दिन गन्ने के रस का आहार करवाया जाता है। जो लोग वर्षीय उपवास करते हैं वे पारणा करने के लिए हस्तिनापुर की धरती पर आकर के अपना उपवास समाप्त करके पारणा इच्क्षु रस से करते है और अपने आप को धन्य मानते हैं ।
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