अब सबकुछ बदल गया
दो ढाई दशक पहले गाँव मे न टेंट हाऊस थे और न कैटरिंग, थी तो बस सामाजिकता। गांव में जब कोई शादी ब्याह होते तो घर घर से चारपाई ,चौकी, कुर्सी,दरी, जाजिम, गैसबत्ती, बगल के स्कुल से माहटर साहेब के मेहरबानी से हाई- लो बेंच आ जाती थी,। चिन्हित घरो से हण्डा, जग, सड़सी, कलछुल, कराही,बाल्टी इकट्ठा हो जाता था । इन सब पर पहचान के लिए कोई पढूआ लडका भठ्ठा से नाम पता लिखता। बचाखुचा बर्तन की आपूर्ति गांव के कुम्हार भाई के द्वारा प्रदत्त बड़े छोटे बर्तन यथा नाद, हरिया आदि से हो जाती थी। गाँव की ही महिलाएं एकत्र हो कर खाना बना देती थीं। औरते ही मिलकर दुलहिन तैयार कर देती थीं । हर रसम का गीत गारी वगैरह भी खुद ही गा लिया करती थी।
गाव के सभी मानिदं लोग, मूछउठान जवान तथा लड़के पूरे दिन काम करने के लिए इकट्ठे रहते थे। हंसी ठिठोली चलती रहती और समारोह का कामकाज भी। शादी ब्याह मे गांव के लोग बारातियों के खाने से पहले खाना नहीं खाते थे क्योंकि यह घरातियों की इज्ज़त का सवाल होता था। गांव की महिलाएं गीत गाती जाती और अपना काम करती रहती। सच कहु तो उस समय गांव मे सामाजिकता के साथ समरसता होती थी।
खाना परसने के लिए गाँव के नवही का गैंग समय पर इज्जत सम्हाल लेते थे। कोई बड़े घर की शादी होती तो बहुत हुआ तो लाउडस्पीकर बजा देते थे। -मैं दूल्हे राजा भी उस दिन खुद को किसी युवराज से कम न समझते। दूल्हे के आसपास नाऊ हमेशा रहता, समय समय पर बाल झारते रहता था और समय समय पर काजर-पाउडर भी पोत देता था ताकि दुलहा सुन्नर लगे। फिर द्वारा चार होता फिर शुरू होती पण्डित जी लोगों की महाभारत जो रातभर चलती। फिर कोहबर होता, ये वो रसम है जिसमे दुलहा दुलहिन को अकेले में दो मिनट बतियाने के लिए दिया जाता था लेकिन इत्ते कम समय में कोई क्या खाक बात कर पाता। यही वो रसम है जिसमे दूल्हे राजा जेम्स बांड बन जाते कि ना, हम नही खाएंगे कलेवा। फिर उनको मनाने कन्यापक्ष के सब जगलर टाइप के लोग आते। अक्सर दुलहा की सेटिंग अपने चाचा या दादा से पहले ही सेट रहती थी और उसी अनुसार आधा घंटा या पौन घंटा रिसियाने का क्रम चलता और उसी से दूल्हे के छोटे भाई सहबाला की भी जलवा टाइट रहता लगे हाथ वो भी कुछ न कुछ और लहा लेता ।
उसके बाद दूल्हे का साक्षात्कार वधू पक्ष की महिलाओं से करवाया जाता और उस दौरान उसे विभिन्न उपहार प्राप्त होते जो नगद और श्रृंगार की वस्तुओं के रूप में होते.. इस प्रकिया में कुछ अनुभवी महिलाओं द्वारा काजल और पाउडर लगे दूल्हे का कौशल परिक्षण भी किया जाता और उसकी समीक्षा परिचर्चा विवाह बाद भी होती थी । इसे दूल्हा दिखाई/अपटौनी कहा जाता था.।
सबेरे सबेरे भतखई होता। इसमें बराती को कौर उठाने के लिए रुसा-फुली मान-मन्नौवल होता। इस दरम्यान औरत द्वारा चुनिंदा गारी गाई जाती जिसको दोहराया नहीं जा सकता
फिर गिने चुने बुजुर्गों द्वारा माड़ौ (विवाह के कर्मकांड हेतु निर्मित अस्थायी छप्पर) हिलाने की प्रक्रिया होती । समधी जी अड़ जाते कि बिना जोड़ा बैल या लगहर लिए माड़ो का बंधन नहीं खोलेगें। गांव मुखिया के द्वारा भविष्य में आपूर्ति के आश्वासन के बाद मान भी जाते। एक एक बराती का एक एक घराती से परिचय होता। सभी एक दूसरे के गले मिलते। एक विजयी मुस्कान के साथ वर और वधू पक्ष इसका आनंद लेते।
वहां हम लोगों के बचपन का सबसे महत्वपूर्ण आनंद उसमें लगे लकड़ी के शुग्गों ( तोता) को उखाड़ कर प्राप्त होता था और विदाई के समय प्राप्त नगद नारायण कडा़ कड़ा 10/20 रूपये की नोट जो कहीं 50 रूपये तक होती थी।
वो स्वार्गिक अनुभूति होती कि कह नहीं सकते हालांकि विवाह में प्राप्त नगद नारायण को माता जी द्वारा 2/5 रूपये से बदल दिया जाता था।
आज की पीढ़ी उस वास्तविक आनंद से वंचित हो चुकी है जो आनंद विवाह का हम लोगों ने प्राप्त किया है.
लोग बदलते जा रहे हैं, परंपरा भी बदलते चली जा रही है, लेकिन जो मजा उस समय मे था, वह अब धीरे धीरे बिलुप्त हो रहा है।